रथ का पहिया लेके #भीष्म की ओर दौड़ते #कृष्ण और उन्हें रोकते #अर्जुन
यह चित्र बहुत ही सुंदर है। इस दृश्य पर कईं बार चिंतन करता हूँ मैं। सोचता हूँ कि क्या गजब का दृश्य रहा होगा, जब योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण अपनी शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा को तोड़के रथ का पहिया उठाके भीष्म की ओर दौड़ पड़े! अर्जुन मन लगाके युद्ध नहीं कर रहा था परन्तु पितामह तो काल बनके पाण्डवसेना पर टूट पड़े थे। कृष्ण ने अर्जुन को भगवद्गीता का उपदेश दे दिया था। अर्जुन ने स्वयं स्वीकार कर लिया था कि उसके मोह का नाश हो गया है और अब वो पूरे मन से युद्ध करेगा। मगर अर्जुन की रूचि तब भी युद्ध में नहीं हो पा रही थी। और पितामह पाण्डवसेना का संहार किये जा रहे थे। सारथी बने हुए कृष्ण एकदम से उठते हैं और अर्जुन को कहते हैं कि यदि तुमसे कुछ नहीं होता तो फिर मैं जा रहा हूँ पितामह का वध करने। क्योंकि मैं अपनी आँखों के सामने अधर्म को जीतते हुए नहीं देख सकता।
सोचिये! कैसे हैं कृष्ण!! पितामह पूरी उम्र अपनी प्रतिज्ञा में बंधे रहे। विवाह नहीं किया, हस्तिनापुर के राजा नहीं बने, सारी आयु हस्तिनापुर की सेवा में लगा दी। भीम को दुर्योधन ने जहर दे दिया, पितामह कुछ नहीं कर सके। लाक्षाग्रह को दुर्योधन ने आग लगवाकर पांचों पाण्डवों को उनकी माता सहित जलाने की कुचेष्टा की। पितामह तब भी कुछ नहीं कर सके। द्रौपदी का निर्वस्त्र किया जा रहा था, पर पितामह गर्दन झुकाये बैठे रहे। पितामह की आँखों से सामने अधर्म पर अधर्म होता रहा, परन्तु पितामह कुछ नहीं कर सके। क्यों? क्योंकि प्रतिज्ञा में बंधे थे। और महापुरुषों को प्रतिज्ञा प्राणों से भी अधिक प्रिय होती है। इसलिये मौत को स्वीकार भले कर लेंगे परन्तु किसी हाल में प्रतिज्ञा नहीं टूटने देंगे।
परन्तु अद्भुत हैं कृष्ण! उन्होंने प्रतिज्ञा की कि महाभारत के युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊंगा लेकिन फिर पितामह को मारने दौड़े। जिस प्रतिज्ञा को बचाने के लिये पितामह अधर्म को नहीं रोक सके, उसी प्रतिज्ञा को कृष्ण ने धर्म को बचाने के लिये तोड़ दिया! और तोड़ भी दिया तो अर्जुन को प्रसन्न हो जाना चाहिये था। क्योंकि जो काम अर्जुन से नहीं हो पा रहा था; वे सुदर्शनचक्रधारी श्रीकृष्ण करने निकल पड़े थे। परन्तु अद्भुत हैं अर्जुन भी! कृष्ण को जाते देख भागे उनकी तरफ! और कहते कि आप अपनी प्रतिज्ञा मत तोड़िये। मैं करता हूँ युद्ध। मैं रोकूंगा पितामह को। मेरे होते हुए आपको अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़े, तो धिक्कार है मुझे!! अर्जुन के पास स्वर्णिम अवसर था। अपने हाथ अपने ही दादा के खून से लाल करने से बच जाता! पितामह कृष्ण के द्वारा मारे जाते। सांप भी मर जाता और लाठी भी नहीं टूटती। मगर अर्जुन को अपने से ज्यादा फिक्र है कृष्ण की। कृष्ण रथ का पहिया लेके भीष्म की ओर दौड़ रहे हैं, और अर्जुन वायु सी तीव्र गति से कृष्ण तक पहुंचकर उन्हें पकड़ लेते हैं। किसी तरह उन्हें आश्वस्त करते हैं कि मैं युद्ध करूँगा।
यह सब देखकर तो बूढ़े भीष्म केवल प्रसन्न हो रहे थे। सोच रहे थे कि यह छलिया कैसा है! मेरी प्रतिज्ञा बचाने के लिये स्वयं की प्रतिज्ञा तोड़ दी। दुर्योधन को मैंने कहा था कि पांचों पाण्डवों के सर काटके ले आऊंगा, या फिर कृष्ण को शस्त्र उठाने पर मजबूर कर दूंगा। और चिरंजीवी होने वाले आशीर्वाद के लिए कहा था कि अपनी पत्नी भानुमति को भेजना, तो उसे अखण्ड सौभाग्यवती भवः का आशीर्वाद दे दूंगा। परन्तु कृष्ण तो द्रौपदी को ले आये और वो आशीर्वाद द्रौपदी को दिलवा दिया। अब पाण्डवों का तो बाल बांका नहीं हो सकता था। वैसे भी नहीं होता, क्योंकि भगवान उनके साथ थे। मगर अब मेरी प्रतिज्ञा झूठी पड़ जाती तो उसी को बचाने के लिये कृष्ण ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी! क्योंकि मैंने कहा था कि पाँचो पाण्डवों का वध कर दूंगा या कृष्ण को शस्त्र उठाने पर विवश कर दूंगा। कृष्ण ने शस्त्र उठाके मेरी प्रतिज्ञा की लाज रख ली। भागवत में एकादश श्लोकों में जो भीष्म ने भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति की है, वो सच में बहुत ही सुंदर है। धन्य हैं भीष्म, जिनके लिये भगवान ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी। धन्य हैं अर्जुन, जो भगवान के चरणों में गिरके उन्हें रोक रहे हैं। और धन्य है सनातन धर्म तथा संस्कृति जिसकी रक्षा और स्थापना के लिये भगवान बार बार अवतरित होते हैं।
© सुमित कृष्ण (जम्मू)